मुख्य आचार्य जी का संदेश –
।। ओ३म् ।।
आर्यों/ आर्याओं !
नमस्ते ।
वेद मन्त्र का उच्चारण एकश्रुति में पाप वा शास्त्र विरुद्ध नहीं है । यज्ञकर्म में एक श्रुति ( यज्ञकर्मणि …) और स्वाध्याय काल में एकश्रुति तथा स्वर सहित ( वा छन्दसि ) मान्य है । और भी प्रमाण है । इसलिये स्वर रहित शुद्ध उच्चारण सन्ध्या आदि मान्य है । जो प्रक्रिया कर्मकाण्ड की निर्मात्री सभा से है । वह सभी ठीक और शास्त्रीय है । सन्देह करके संशय में न हो ।उसी श्रद्धा से एकश्रुति में बोल सकते हैं । हाँ सभी आर्यों एवं आर्याओं को स्वर सहित वेदों का उच्चारण सीखना ही चाहिये तथा सभी आर्य बालकों एवं बालिकाओं को बाल्यकाल से ही स्वरसहित मन्त्रों का उच्चारण सिखाना अनिवार्य है । इसमें विकल्प न समझे ।संध्या एवं स्वस्तिवाचन आदि स्वरसहित ही बोले जावें अन्यथा स्वर के अभाव में अर्थबोध ठीक नही होगा । अब आपके पास चारों वेदों को स्वरसहित पढ़ाने वाले शास्त्री तथा आचार्य हैं । यह देन पण्डितप्रवर आचार्य हनुमत् प्रसाद अथर्ववेदी को है । इनके ही १८ वर्षों के सतत पुरुषार्थ से हम आर्यों के भी पास अब ऐसी व्यवस्था हो पायी है ।आओ । अभी एक स्वप्न देखें कि हमारे बालक स्वरसहित उच्चारण करते हुये संध्या कर रहे हैं तथा स्वस्तिवाचन आदि शुद्ध स्वर में बोल रहे हैं तथा सामगान कर रहे हैं और दक्षिण भारत के वेदपाठी ब्राह्मणों के साथ आदर पा रहें हैं और उच्च से उच्च पदों ( I.A.S., P.C.S., Dr. , Er., Lec. आदि ) पर भी हैं और खेती आदि करने वाले हमारे आर्य युवक भी उन्ही की पंक्तियों में बैठकर स्वरसहित संध्या आदि कर रहे हैं । इस दृश्य का स्वप्न भी हमें आर्यावर्त का स्मरण करायेगा ।यही सब उपाय हैं राष्ट्र के निर्माण के , इन सबकी उसमें भूमिका है ।अब देखते हैं कौन कौन आर्य और कितना शीघ्र इस स्वप्न को जागते हुये साकार करते हैं ।एक चेतावनी भी याद रहे कि १२ साल की उम्र पार होते ही स्वर सिखाना कठिन हो जाता है अत: इस हेतु प्रयास ५ वर्ष से प्रारम्भ हो जाने चाहिये ।आओ ! हमारी और आपकी आयु तो अधिक हो गयी परन्तु अपने हजारों बालकों एवं बालिकाओं को वेद पढ़ना सिखायें । यह गौरव की बात है, प्रगतिशीलता है, उच्चता है , धार्मिकता है , कर्तव्यपालन है और राष्ट्रीयता है । आओ । स्वप्न को स्वप्न न रहने दें इसे शीघ्र चारों तरफ प्रत्यक्ष देखने के लिये प्रयत्न शुरू करें। ********** परमदेव मीमांसक