मुख्य आचार्य जी का संदेश –

                                                                                     ।। ओ३म् ।।

नमस्ते ! आर्यों एवं आर्याओं !

    आर्य विद्या देकर आर्य एवं आर्या बनाना एक श्रेष्ठ कार्य है । जहाँ करोड़ों -अरबों लोगों को इसका परिज्ञान ही नहीं  है कि यह वैदिक सिद्धान्त उन्हीं के लिये है , जिन थोड़े से लोगों को है उनको भी ठीक ठीक नही पता है कि यही सिद्धान्त है , कुछ लोगों को तो यह सिद्धान्त गलत ही लगता है , कुछ लोग इसे गलत ही सिद्ध करना चाहते हैं , कुछ लोग इसे जानकर भी विश्वास नहीं कर पाते हैं , कुछ लोग इसे जानकर भी अनजान बने रहना चाहते हैं । इसी को कहते हैं – पश्यन्नपि न पश्यति । अर्थात् देखते हुए भी नही देखता है । इस विषम परिस्थिति में  आर्षविद्या देना‚ समझाना ‚ग्रहण कराना और इस पर चलाना महान कार्य ही है । कठिनतम कार्य भी है । ऋषि दयानन्द के बलिदान के बाद से ही यदि आर्यनिर्माण का यह उपक्रम प्रारम्भ हो जाता तो सवा सौ वर्ष में हम करोड़ों में होते और आज अल्पसंख्यक से भी अल्पसंख्यक न होते। मा़त्र गुरूकुलों में हजारों को ही आर्यविद्या देकर‚ वह भी अधिकांश पाठमात्र ही होता है ‚संतुष्ट न हो जाते तो हम लाखों में होते । इनमें भी थोड़े ही आर्य रह पाये ‚ अधिक का तो हिन्दुओं में उदरीकरण ही हो गया अर्थात् वे हिन्दू ही बन गये । फिर सामान्य जनता का क्या होता उन्हें तो मात्र इन्हीं के व्याख्यान सुनने को मिले‚ जो प्रायः उलूकयातुं शुशुलूकयातुं से शुरू होता था । इन्हीं विषम परिस्थितियों में सत्र प्रारम्भ किया गया था । जिनमें वेद के शताधिक सिद्धान्तों का बोध कराया जाता था  और इस विद्या विधि से लक्षाधिक आर्यजन बनें । अब यह महासत्र का आयोजन किया जा रहा है ‚ जिसमें अनेकों आचार्य एक साथ मिलकर हजार लोगों को आर्ष विद्या देकर ‚समझाकर ‚ मनवाकर ‚ हृदयंगम कराकर आर्य बनायेंगे । इसका चिन्तन ही सुखमय है ‚कार्य तो आह्लादकारी होगा ही । जो इसमें पुरुषार्थ कर रहें हैं ‚ उनका सहयोग करना प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है । कैथल जनपद में महासत्र के आयोजन में प्रत्येक आर्य सहयोग करे । जनपद के हजारों जनों को आर्य बनाना कृण्वन्तो विश्वमार्यम् है ‚ कृण्वन्तो विश्वमार्यम् .. इंग्लैण्ड में जाकर अंग्रेजों को आर्य बनाना ही नही है । और वहां भी हमी लोग निर्माण कर सकते हैं । अन्यों के लिये तो सौ वर्ष से यह नारा मात्र ही है ‚ आर्यसमाजियों से तो यह नारा भी विश्व हिन्दू परिषद वालों ने छीन लिया है । आप और हम लोग तो इस आदेश का पालन कर ही रहें हैं । अतः इस प्रयत्न को हजार से हजारों में ले जाना है । कहीं का भी आर्य क्यों न हो कैथल जनपद में रहने वाले सगे सम्बन्धी ‚ मित्र वर्ग को लेकर महासत्र में पहुँचो । वहीं रूको और उन्हें आर्ष विद्या समझने-समझाने में सहयोग करो और नव आर्य का संरक्षण कर दृढ़ आर्य बनाओ ।

आज भगतसिंह सहित तीन-तीन क्रान्तिकारियों का बलिदान दिवस है । ये युवक उस आयु में फाँसी पर झूल गये जिस आयु में हम सत्रों में बैठने की अनुमति देते हैं ‚ अंग्रेजों के अत्याचार और गुलामी से आजादी दिलाने के लिये लड़े । भगतसिंह का आदि और अन्त भी तो आर्यसमाजियों के लिये हुआ । जन्म आर्य परिवार में ‚यज्ञोपवीत आर्यपरिवार में ही होता है । शिक्षा आर्यसमाजियों के गढ़ में ‚ बालकपन में जितना समझ में आ सकता है उतना सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ा होगा। आर्यसमाजी पं. रामप्रसाद बिस्मिल के दल में शामिल हुये । आर्यसमाज के नेता लाला लाजपतराय की निर्मम हत्या का बदला लिया और फाँसी पर झूल गये । अभी युवा ही था ‚ संशय अवश्य थे ‚ उसने भी आर्यसमाज द्वारा लाला लाजपतराय के जेल जाने पर आर्यसमाज से नामोनिंशा मिटाने के लिये उपस्थिति रजिस्टर के पन्ने तक फाड़े जाने को अवश्य सुना होगा । तो जनता की भलाई के लिये युवा विकल्प तो तलाशेगा ही । कुछ समय और जीवित रहता तो मार्क्स एवं लेनिन के सिद्धान्तों का जनाजा निकलते हुये भी देखता‚ तो गुरुदत्त जैसे विद्वान् का सान्निध्य भी प्राप्तकर संशय भी निवृत्त हो जाते । जेल की काल कोठरी में तो उसे बिस्मिल की आत्मकथा ही राह दिखा रही थी । इसलिये युवाओं उसके राष्टृहित के बलिदान से प्रेरणा लेनी ही है । आज के कालखण्ड में होते तो हम लोग उसके संशयों की निवृत्ति अनायाश ही कर देते । क्योंकि संस्कार तो आर्यपरिवार एवं आर्य परिवेश के ही थे । आप लोग इन युवकों के बलिदान एवं साहस से प्रेरणा लेकर जन जन की उन्नति के लिये आर्य निर्माण में लग जाइये । हजारों वर्षों की इस अविद्या की गुलामी से स्वयं आजाद होना है और करोड़ों लोगों को भी आजाद कराना है । इस हेतु बलिदान की आवश्यकता तो आज भी है ही । धन्यवाद । …………….परमदेव मीमांसक


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