sandhya

।। अथ सन्ध्या ।।

शुद्धि — प्रथम बाह्य शुद्धि अर्थात् शौच एवं स्नान आदि करें, यदि स्नान करने में अक्षमता हो तो हाथ—मुख आदि अंग स्वच्छ करके , जहाँ वायु का आवागमन उचित हो, कम्बल अथवा कुशासन आदि पर पीठ, कण्ठ और सिर को सीधा रखते हुए सुखद स्थिति में बैठकर आभ्यन्तर शुद्धि, मन तथा बुद्धि के शान्त और एकाग्रता हेतु प्राणायाम करें।

प्राणायाम विधि — भीतर के वायु को बल से बाहर निकालकर यथाशक्ति बाहर ही रोकें, जब घबराहट होने लगे तब धीरे—धीरे भीतर लेकर कुछ देर भीतर ही रोकें, यह एक प्राणायाम हुआ और इस प्रकार कम से कम तीन प्राणायाम करें। नासिका को हाथ से न पकड़ें।

शिखा बन्धन — निम्न गायत्री मन्त्र से शिखा बाँधें एवं ईश्वर से प्रार्थना करें —

ओ३म्। भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात्।।                                                                       य० अ० ३६/ मं० ३।।

पदार्थ — ओम्—सर्वरक्षक भूः—प्राणों का भी प्राण भुवः—सब दुःखों से रहित स्वः—स्वयं सुखस्वरूप तत्—उसको सवितुः—सब जगत् की उत्पत्ति करने वाला वरेण्यम्—अतिश्रेष्ठ, ग्रहण करने योग्य भर्गः—सब क्लेशों को भस्म करने वाले देवस्य—कामना करने योग्य का धीमहि—ग्रहण करते हैं धियः—बुद्धियों को यः—जो आप सविता देव परमेश्वर हैं नः—हमारी प्रचोदयात्—प्रेरित कीजिए।

अन्वयार्थ — हे परमेश्वर! सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले, कामना करने के योग्य, आपका जो सब दुःखों से रहित, प्राणों का भी प्राण, स्वयं सुखस्वरूप, अतिश्रेष्ठ, ग्रहण करने योग्य, सब क्लेशों को भस्म करने वाला पवित्र, शुद्ध, चेतनस्वरूप है, उसको हम ग्रहण करते हैं। हे भगवान् जो आप सविता देव परमेश्वर हैं, कृपा करके हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण—कर्म—स्वभावों में प्रेरित कीजिये।

।। अथ आचमनमन्त्रः ।।

  ओं शन्नो देवी रभिष्टयऽ आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्रवन्तु नः।। यजु० ३६। मं०१२

पदार्थ — शम्—कल्याणकारी नः—हमको, देवी—सबका प्रकाशक ,अभिष्टये —मनोवाञ्छित आनन्द ,आपः—सबको आनन्द देने वाला और सर्वव्यापक भवन्तु—हो पीतये—पूर्णानन्द की प्राप्ति के लिए शंयोः—सुख की अभिस्रवन्तु—सर्वथा वृष्टि करे नः—हम पर।

अन्वयार्थ — सबका प्रकाशक, सबको आनन्द देने वाला और सर्वव्यापक ईश्वर मनोवाञ्छित आनन्द और पूर्णानन्द की प्राप्ति के लिए हमको कल्याणकारी हो अर्थात् हमारा कल्याण करे। वही परमेश्वर हम पर सुख की सर्वथा वृष्टि करे।

इस मन्त्र से दाहिने हाथ की हथेली में जल लेकर तीन आचमन करें, आचमन करते हुए मुख से किसी प्रकार की ध्वनि न हो। पश्चात् दोनों हाथ धो लें।

अब बाँये हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की मध्यमा तथा अनामिका अंगुली से जल द्वारा मुख एवं नासिका आदि को (पहले दाहिने फिर बाँये) मन्त्र बोलने के पश्चात् स्पर्श करें —

।। अथेन्द्रियस्पर्शमन्त्राः ।।

ओं वाक् वाक्। (वाक्—वाणी) इससे मुख का दक्षिण और वामपार्श्व

ओं प्राणः प्राणः।                             इससे दक्षिण और वाम नासिका के छिद्र

ओं चक्षुः चक्षुः।                               इससे दक्षिण और वाम नेत्र

ओं श्रोत्रम् श्रोत्रम्।          इससे दक्षिण और वाम श्रोत्र

ओं नाभिः।                        इससे नाभि

ओं हृदयम्।                       इससे हृदय

ओं कण्ठः।                        इससे कण्ठ

ओं शिरः।                          इससे मस्तक

ओं बाहुभ्यां यशोबलम्। (बाहुभ्यां—दोनों बाहुओं से, यशोबलम्—

यश और बल को) इससे दोनों भुजाओं

के मूल स्कन्ध

ओं करतलकरपृष्ठे।       (करतलकरपृष्ठे—हथेली और करपृष्ठ में)

इससे दोनों हाथों के ऊपर तले स्पर्श

करना।

अन्वयार्थ — हे ईश्वर ! आपकी कृपा से वाणी, प्राण, आँख, कान आदि इन्द्रियाँ बलवान् रहें। नाभि, हृदय, कण्ठ और सिर बलवान रहे। दोनों बाहुओं के द्वारा मैं यश और बल प्राप्त करूँ, हथेली और करपृष्ठ में बल रहे।

पुनः पूर्वोक्त प्रकार से जल लेकर सिर—नेत्र आदि अङ्गों पर मन्त्र बालने के उपरान्त छीटें देवें—

।। अथेश्वरप्रार्थनापूर्वकमार्जनमन्त्राः ।।

ओं भूः पुनातु शिरसि —             (भूः— प्राणों के भी प्राण परमेश्वर, पुनातु—पवित्रता कीजिए, शिरसि—सिर में)

ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः—             (भुवः—दुःखों से रहित प्रभु, पुनातु—पवित्रता कीजिए, नेत्रयोः—दोनों नेत्रों में)

ओं स्वः पुनातु कण्ठे              (स्वः—सुखस्वरूप परमेश्वर, पुनातु—पवित्रता कीजिए, कण्ठे—कण्ठ में)

ओं महः पुनातु हृदये —              (महः—सबसे महान् परमात्मा, पुनातु—पवित्रता कीजिए, हृदये—हृदय में)

ओं जनः पुनातु नाभ्याम् — (जनः—सबके उत्पादक भगवान् पुनातु—पवित्रता कीजिए, नाभ्याम्—नाभि में )

ओं तपः पुनातु पादयोः —         (तपः—दुष्टों को सन्ताप देने वाले स्वयं ज्ञान स्वरूप ईश्वर, पुनातु—पवित्रता कीजिए, पादयोः—दोनों पैर में)

ओं सत्यं पुनातु पुनः शिरसि — (सत्यम्—हे अविनाशी सत्यस्वरूप परमात्मा, पुनातु—पवित्रता कीजिए, पुनः, शिरसि—सिर में)

ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र — (खम् ब्रह्म—हे सर्वव्यापक प्रभो! पुनातु— पवित्रता कीजिए, सर्वत्र —सभी अंगप्रत्यंगों में)

इस मन्त्र से सब अङ्गों पर जल छिड़कें।

।। अथ प्राणायाममन्त्राः ।।

ओं भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्।

इन मन्त्रों का मन में उच्चारण एवं अर्थविचार करते हुए पूर्वोक्त प्रकार से कम से कम तीन प्राणायाम करें।

।। अथाघमर्षणमन्त्राः ।।

ओम् ।  ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

            ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।।१।।

            समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।

            अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।२।।

            सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।

            दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः।।३।।

ऋ० म० १०। सू० १९०। मं० १—३।।

पदार्थ — ऋतम्—वेद को च—और सत्यम् कार्य रूप प्रकृति को च—और अभीद्धात्—सर्वज्ञ ज्ञान से तपसः—अनन्त सामर्थ्य से अध्यजायत—उत्पन्न किया ततः—प्रलय के उपरान्त रात्रि—महारात्रि अजायत—पूर्व की भाँति उत्पन्न हुई ततः—महारात्रि के उपरान्त समुद्रः—सागर अर्णवः—आकाशस्थ सागर (मेघादि के रूप में) समुद्रात् अर्णवात् अधि—समुद्र की उत्पत्ति के उपरान्त संवत्सरः—क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर आदि काल अजायत—पूर्व की भाँति उत्पन्न हुआ अहोरात्राणि—रात और दिन विदधत्—बनाया विश्वस्य — संसार के मिषतः—सहज स्वभाव से वशी—वश में करने वाले परमेश्वर ने सूर्याचन्द्रमसौ—सूर्य और चन्द्रमा को धाता—सब जगत को धारण करने वाले यथापूर्वम्—पूर्व कल्प के समान, जीवों के पाप पुण्य के अनुरूप अकल्पयत्—रचा है दिवम्—सूर्यादि लोकों का प्रकाश च—और पृथिवीम्—पृथ्वी को च—और अन्तरिक्षम्—अन्तरिक्ष को स्वः—मध्यस्थित अन्य लोकों को।

अन्वयार्थ—सब जगत् को धारण करने वाले एवं संसार को वश में रखने वाले परमेश्वर ने पूर्वकल्प के समान सूर्य, चन्द्रमा, सूर्यादि लोकों का प्रकाश, पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं इनके मध्य में स्थित लोकों को रचा है, उसी ने सहज स्वभाव से संसार के रात्रि और दिन को बनाया है, अपने सर्वज्ञ ज्ञान से वेद को तथा अनन्त सामर्थ्य से कार्यरूप प्रकृति (सृष्टि) को उत्पन्न किया है। उसी अनन्त सामर्थ्य से प्रलय के उपरान्त महारात्रि उत्पन्न की, उसी सामर्थ्य से महारात्रि के बाद पृथ्वी पर विशाल समुद्र एवं अन्तरिक्ष में महान् मेघरूपी समुद्र उत्पन्न किया। समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर आदि काल उत्पन्न किया। वेद से लेकर पृथ्वीपर्यन्त जो यह जगत् है सो सब ईश्वर के नित्य सामर्थ्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सब को उत्पन्न करके सबमें व्यापक होके अन्तर्यामी रूप से सब के पाप—पुण्य को देखता हुआ, पक्षपात छोड़के सत्य न्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है, ऐसा निश्चित जानके  ईश्वर से भय करके सब मनुष्य को उचित है कि मन, कर्म और वचन से पापकर्मों को कभी न करें।

।। अथ आचमनमन्त्रः ।।

ओं शन्नो देवीरभिष्टयऽ आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः।। यजु० ३६। मं० १२।  पुनः इस मन्त्र से तीन आचमन करें।

।। अथ मनसा परिक्रमामन्त्राः।।

ओं प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु

यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।1।।

पदार्थ — प्राची—पूर्व दिक्—दिशा का अग्निः—ज्ञानस्वरूप परमेश्वर अधिपतिः—स्वामी, असितः—बन्धन रहित रक्षिता—रक्षा करने वाला है आदित्याः—सूर्य की किरणें इषवः—बाण तेभ्यः—इन सब गुणों के अधिपति ईश्वर के गुणों को नमः—नमस्कार करते हैं, रक्षितृभ्यः— जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत् की रक्षा करने वाले हैं उनको नमः—नमस्कार हो, इषुभ्यः—पापियों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं उनको अस्तु—हो यः—जो अस्मान्—हमसे द्वेष्टि—द्वेष करता है यम्—जिससे वयम्—हम द्विष्मः—द्वेष करते हैं तम्—उसको, वः—आपके जम्भे—वश में दध्मः—रखते हैं।

अन्वयार्थ — पूर्व दिशा का स्वामी ज्ञानस्वरूप परमेश्वर है, बन्धनरहित परमेश्वर रक्षा करने वाला है, सूर्य की किरणें बाणस्वरूप हैं, उन सब गुणों के अधिपति ईश्वर के गुणों को नमस्कार करते हैं, जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत् की रक्षा करने वाले हैं उनको नमस्कार हो, जो पापियों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं उनको नमस्कार हो। जो अज्ञान से हमसे द्वेष करता है, जिससे (अज्ञानता से) हम द्वेष करते हैं, उसको (द्वेष को—बुराई को) आपके वश में रखते हैं, जिससे किसी से हम लोग वैर न करें और कोई भी प्राणी हमसे वैर न करे, किन्तु हम सब लोग परस्पर मित्रभाव से व्यवहार करें।

दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरिश्चराजी रक्षिता पितर इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु

यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।२।।

पदार्थ — दक्षिणा—दक्षिण दिक्—दिशा, इन्द्रः—पूर्ण ऐश्वर्य वाला परमेश्वर, अधिपतिः—स्वामी तिरश्चिराजी—कीट, पतङ्ग, वृश्चिक आदि की पंक्तियों से, रक्षिता—रक्षा करने वाला है पितरः—ज्ञानी लोग, इषवः—बाण के तुल्य है।

अन्वयार्थ — दक्षिण दिशा का स्वामी पूर्ण ऐश्वर्य वाला परमेश्वर है, जो कीट, पतङ्ग, वृश्चिक आदि की पंक्तियों से रक्षा करने वाला है। जिसके ज्ञानी लोग बाण के समान हैं। आगे पूर्ववत्…..

प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।३।।

पदार्थ — प्रतीची—पश्चिम दिक्—दिशा वरुणः—सबसे उत्तम परमेश्वर, अधिपतिः—स्वामी पृदाकुः—बड़े—बड़े अजगर, सर्पादि विषधारी प्राणियों से रक्षिता—रक्षा करने वाला है अन्नम्—पृथिव्यादि पदार्थ इषवः—बाण के तुल्य।

अन्वयार्थ — पश्चिम दिशा का स्वामी सबसे उत्तम परमेश्वर है जो बड़े—बड़े अजगर सर्पादि विषधारी प्राणियों से रक्षा करने वाला है। जिसके पृथिव्यादि पदार्थ बाण के समान हैं।……

उदीची दिक सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।४।।

पदार्थ — उदीची —उत्तर दिक्—दिशा सोम—सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाला ईश्वर अधिपतिः—स्वामी स्वजः—जो अच्छी प्रकार अजन्मा है रक्षिता—रक्षा करने वाला है अशनिः—विदयुत् , इषवः—बाण के तुल्य है।

अन्वयार्थ — उत्तर दिशा का स्वामी सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाला ईश्वर है, अजन्मा परमेश्वर रक्षा करने वाला है, विद्युत जिसके बाण के समान हैं। …..

ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।५।।

पदार्थ — ध्रुवा दिक्—नीचे की दिशा विष्णुः—व्यापक ईश्वर अधिपतिः—स्वामी कल्माषग्रीवा—हरित रंग वाले वृक्षादि ग्रीवा के समान हैं जिसके ऐसा परमेश्वर रक्षिता—रक्षा करने वाला है वीरुधः—वृक्ष इषवः—बाण हैं।…

अन्वयार्थ — नीचे की दिशा का स्वामी व्यापक ईश्वर है। जिसके हरित रंग वाले वृक्ष ग्रीवा के समान हैंक, ऐसा परमेश्वर हमारी रक्षा करने वाला है। जिसके बाण के समान सब वृक्ष हैं ।…

ऊर्ध्वा दिग् बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः।

तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।६।। (अथर्व० कां०३। सू० २७। मं० १—६)

पदार्थ — ऊर्ध्वा दिक्—ऊपर की दिशा, बृहस्पतिः—वेदशास्त्र का ,अधिपतिः —स्वामी, श्वित्रः—शुभ्र वर्ण वाला रक्षिता—रक्षा करने वाला है, वर्षम्—वर्षा के बिन्दु, इषवः—बाण।

अन्वयार्थ — ऊपर की दिशा में ईश्वर के वेदशास्त्र के स्वामी वाले गुणों का ध्यान करें। शुभ्रवर्ण वाला ईश्वर हमारी रक्षा करने वाला है, जिसके बाण के समान वर्षा के बिन्दु हैं।……………

[ सब मनुष्य सर्वशक्तिमान्, सबके गुरु, न्यायकारी, दयालु और पिता के सदृश पालक परमेश्वर को ही सब दिशाओं में रक्षक समझें, यही इन मन्त्रों का अभिप्राय है ]

।। अथ उपस्थानमन्त्राः।।

ओम् उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम्।

            देवन्देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।। १ ।।

(यजु० अ० ३५। मं०१४।।)

पदार्थ — उत्—उत्कृष्ट वयं—हम तमसस्परि—अज्ञानरूपी अन्धकार से अलग स्वः—प्रकाशस्वरूप पश्यन्तः—देखते हुए उत्तरम्—प्रलय के पीछे सदा वर्तमान देवं—देव को देवत्रा—देवों में सूर्यम्—चराचर के आत्मा को अगन्म—प्राप्त हुए हैं ज्योतिः—ज्ञानस्वरूप उत्तमम्—सबसे उत्तम।

अन्वयार्थ — अज्ञानरूप अन्धकार से अलग, प्रकाशस्वरूप, प्रलय के पीछे सदा वर्तमान, देवों में भी देव, चराचर के आत्मा, ज्ञानस्वरूप और सबसे उत्तम परमेश्वर आपको हम प्राप्त हुए हैं।

उदुत्त्यञ्जातवेदसन्देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्।  (यजु० अ० ३३। मं०३१।।)

पदार्थ — उत्—उत्कृष्टता, उ—निश्चय से ही, त्यं—उस परमात्मा को, जातवेदसं — जिससे ऋग्वेदादि चार वेद प्रसिद्ध हुए हैं, देवं —देव को ,वहन्ति—जनाते एवं प्राप्त कराते हैं ,केतवः—वेद एवं जगत् के पृथक् रचनादि नियामक गुण, दृशे—देखने के लिए, विश्वाय—जगत् को—सूर्यम्—सब जीवादि जगत् के प्रकाशक।

अन्वयार्थ — जिससे ऋग्वेदादि चार वेद प्रसिद्ध हुए हैं तथा सब जीवादि जगत् के प्रकाशक वेद को, वेद एवं जगत् के पृथक्—पृथक् रचनादि नियामक गुण निश्चय ये ही जनाते और प्राप्त कराते हैं। जगत् को देखने (यथार्थ रूप से जानने) के लिए उस परमात्मा की हम लोग उपासना करते हैं।

चित्रन्देवानामुदगादनीकञ्चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावा पृथिवीऽअन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ।।३।।                           (यजु० अ० ७। मं०४२।।)

पदार्थ —चित्रम्—अद्भुतस्वरूप देवानाम्—विद्वानों के हृदय में उत्—उत्कृष्टता से अगात्—प्राप्त है अनीकम्—दुःखनाशक परम उत्तम बल चक्षुः—प्रकाश करने वाला है मित्रस्य—राग—द्वेष रहित मनुष्य का वरुणस्य उत्तम कार्य करने वाले मनुष्य का अग्नेः—अग्नि का आप्रा—व्याप्त है द्यावापृथिवी—द्युलोक और पृथ्वीलोक को अन्तरिक्षम्—अन्तरिक्षलोक को सूर्यः—सृष्टिकर्ता आत्मा—स्वामी जगतः—प्राणियों का तस्थुषः—जड़ जगत् का च—और स्वाहा—यह मैं ज्ञान से सत्य कहता हूँ।

अन्वयार्थ — वह अद्भुतस्वरूप है, राग—द्वेषरहित मनुष्य का, उत्तम कर्म करने वाले मनुष्य का एवं अग्नि का प्रकाश करने वाला है, घुलोक, पृथिवीलोक एवं अन्तरिक्ष लोक को व्याप्त किये हुए है, प्राणी और जड़ जगत् का निर्माणकर्ता स्वामी है, दुःखनाशक परम उत्तमबल है, ऐसा परमात्मा विद्वानों के हृदय में सदा प्रकाशित रहता है। ऐसा जो परमात्मा है वह मुझे भी प्राप्त हो, यह मैं अपने ज्ञान से सत्य कहता हूँ।

तच्चक्षुर्देवहितम्पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतञ्जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात् ।।४।।

(यजु० अ० ३६। मं० २४।।)

पदार्थ — तत्—जो ब्रह्म चक्षुः—सबका द्रष्टा देवहितं—धार्मिक विद्वानों का परमहितकारक पुरस्तात्—सृष्टि के पूर्व, पश्चात् और मध्य शुक्रम—शुद्धस्वरूप उच्चरत्—उत्कृष्टता से सर्वत्र व्याप्त है। पश्येम—देखें शरदः—वर्ष शतम्—सौ जीवेम—जीवें शरदः—वर्ष शतम्—सौ शृणुयाम—सुनें शरदः—वर्ष शतम्—सौ प्रब्रवाम—उपदेश करें शरदः—वर्ष शतम्—सौ अदीनाः—न दीन तथा न दरिद्र स्याम—होवें शरदः—वर्ष शतम्—सौ भूयः—अधिक च—और शरदः—वर्ष शतात्—सौ से।

अन्वयार्थ — जो ब्रह्म सबका द्रष्टा, धार्मिक विद्वानों का परमहितकारक सृष्टि के पूर्व, पश्चात् और मध्य में शुद्ध स्वरूप से वर्तमान उत्कृष्टता के साथ सर्वत्र व्याप्त है। उसी ब्रह्म को सौ वर्ष पर्यन्त देखें, जीवें, सुनें तथा उपदेश करें, उसकी कृपा से सौ वर्ष तक कभी दीन और दरिद्र न रहें उसी परमेश्वर की आज्ञा पालन और कृपा से हम, सौ वर्ष से भी अधिक जीवें, देखें, सुनें, सुनावें और स्वतन्त्र रहें।

।। अथ गुरुमन्त्रः ।।

ओं भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात् ।।     

(यजु० अ० ३६। मं० ३।)

पदार्थ — ओम्—सर्वरक्षक भूः—प्राणों का भी प्राण भुवः—सब दुःखों से रहित स्वः— स्वयं सुखस्वरूप तत्—उसको सवितुः—सब जगत् की उत्पत्ति करने वाला वरेण्यम्—अतिश्रेष्ठ ग्रहण करने योग्य भर्गः—सब क्लेशों को भस्म करने वाले देवस्य—कामना करने योग्य का धीमहि—ध्यान करते हैं धियः—बुद्धियों को यः—जो आप सविता देव परमेश्वर हैं नः—हमारी प्रचोदयात्—प्रेरित कीजिए।

अन्वयार्थ — हे परमेश्वर! सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले, कामना करने के योग्य, आपका जो सब दुःखों से रहित, प्राणों का भी प्राण, स्वयं सुखस्वरूप, अतिश्रेष्ठ ग्रहण करने योग्य सब क्लेशों को भस्म करने वाला पवित्र, शुद्ध चेतनस्वरूप है, उसका हम ध्यान करते हैं। हे भगवन्! जो आप सविता देव परमेश्वर हैं, कृपा करके हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण—कर्म—स्वभावों में प्रेरित कीजिए।

।। अथ समर्पणम् ।।

हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयाऽनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।।

हे परमेश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जपोपासनादि कर्म को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें।।

।। अथ नमस्कारमन्त्रः ।।

ओं नमः शम्भवाय मयोभवाय नमः शंकराय मयस्कराय नमः शिवाय शिवतराय च।।

यजु० अ० १६। म० ४१।।

पदार्थ—नमः—नमस्कार होवे ,शम्भवाय—सुखस्वरूप परमेश्वर, च—और मयोभवाय— सबसे उत्तम सुखप्रदाता, च—और नमः—नमस्कार होवे ,शङ्कराय—कल्याण करने वाले को, च—और मयस्कराय—सुखदाता और धर्मकार्यों में जोड़ने वाले को, च—और नमः—नमस्कार होवे , शिवाय—मङ्गल स्वरूप को, च—और, शिवतराय—अत्यन्त मङ्गलस्वरूप को , च—और ।

अन्वयार्थ— सुखस्वरूप, सबसे उत्तम सुखप्रदाता, कल्याण करने वाले, सुखदाता और धर्मकार्यों में जोड़ने वाले, मङ्गलस्वरूप एवं अत्यन्त मङ्गलस्वरूप परमेश्वर को बारम्बार नमस्कार हो।

।। इति सन्ध्योपासनविधिः ।। 


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